दयानन्द नाम का एक बहुत बड़ा व्यापारी था और उसका इकलौता पुत्र सत्यप्रकाश जो पढ़ने से बहुत जी चुराता था और परीक्षा मे भी किसी और के भरोसे रहता और फेल हो जाता!पर एक दिन उसके जीवन मे ऐसी घटना घटी फिर उसने संसार से कोई आशाएं न रखी और फिर पुरी तरह से एकाग्रचित्त होकर चलने लगा!
एक दिन दयानन्द का बेटा स्कूल से घर लोटा तो वो दहलीज से ठोकर खाके नीचे गिरा जैसै ही उसके माँ बाप ने देखा तो वो भागकर आये और गिरे हुये बेटे को उठाने लगे पर बेटे सत्यप्रकाश ने कहा आप रहने दिजियेगा मैं स्वयं उठ जाऊँगा!
दयानन्द – ये क्या कह रहे हो पुत्र?
सत्यप्रकाश- सत्य ही तो कह रहा हूँ पिताश्री इंसान को सहायता तभी लेनी चाहिये जब उसकी बहुत ज्यादा जरूरत हो और इंसान को ज्यादा आशाएं नही
रखनी चाहिये नही तो एक दिन संसार उसे ऐसा गीराता है की वो फिर शायद कभी उठ ही न पाये!
दयानन्द- आज ये कैसी बाते कर रह हो पुत्र? बार बार पुछने पर भी पुत्र कुछ न बोला कई दिन गुजर गये फिर एक दिन दयानन्द- आखिर हमारा क्या अपराध है पुत्र, की तुम हमारे साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हो!
सत्यप्रकाश- तो सुनिये पिता श्री एक दिन मैं स्कूल से जब घर लोट रहा था तो एक वृद्ध सज्जन माथे पर फल की टोकरी लेकर फल बेच रहे थे और चलते चलते वो ठोकर लगने से गिर गये, जब मैं उन्हे उठाने पहुँचा तो उन्होंने कहा बेटा रहने दो मैं उठ जाऊँगा पर मैं आपको धन्यवाद देता हूँ की आप सहायता के लिये आगे आये!
फिर उन्होने कहा पुत्र आप एक विद्यार्थी हो आपके सामने एक लक्ष्य भी है और मैं आपको सफलता का एक मंत्र देता हूँ की संसार से ज्यादा आशाएं कभी न रखना! फिर मैंने पूछा बाबा आप ऐसा क्यों कह रहे हो और संसार से न रखुं आशाएं तो किससे रखुं?
तो उन्होने कहा मैं ऐसा इसलिये कह रहा हूँ पुत्र की जो गलती मैंने की, वो गलती आप न करना और आशाएं स्वयं से रखना| अपने सद्गुरु और इष्टदेव जी से रखना, किसी और से ज्यादा आशाएं रखोगे तो एक दिन आपको असफलताएं ज्यादा और सफलताएं कम मिलेगी! मेरा एक इकलौता पुत्र जब उसका जन्म हुआ तो कुछ समय बाद मॆरी पत्नी एक एक्सीडेंट मे चल बसी और वो भी गम्भीर घायल हो गया, उसके इलाज मे मैंने अपना सबकुछ लगा दिया वो पूर्ण स्वस्थ हो गया और वो स्कूल जाने लगा और मैं उससे ये आशाएं रखने लगा की एक दिन ये कामयाब इंसान बनेगा और धीरे धीरे मॆरी आशाएं बढ़ने लगी, फिर एक दिन वो बहुत बड़ा आदमी बना की उसने मॆरी सारी आशाओं को एक पल मे पूरा कर दिया!तो मैंने पूछा की वो कैसे ?तो उन्होने कहा की वो ऐसे की जब मैं रात को सोया तो अपने घर मे पर जब उठा तो मैंने अपने आपको एक वृद्धआश्रम मे पाया और जब मैं घर पहुँचा तो वहाँ एक सज्जन पुरूष मिले उन्होने बताया की बाबा अब ये घर मेरा है आपका बेटा मुझे बेचकर चला गया! फिर मैं अपने सद्गुरु के दरबार मे गया क्षमा माँगने!
फिर मैंने कहा पर बाबा सद्गुरु से क्षमा माँगने क्यों तो उन्होने कहा पुत्र वर्षों पहले उन्होंने मुझसे कहा था की बेटा संसार से ज्यादा आशाएं न रखना नही तो अंततः निराशा ही हाथ आयेगी और फिर मैंने उन्हे प्रणाम करके अपनी आगे की यात्रा शुरू की और आज मैं बहुत खुश हूँ क्योंकि आज मैं इस संसार से नही बस अपने आपसे अपने सद्गुरु से और अपने इष्टदेवजी से आशाएं रखता हूँ!
और फिर मैं वहाँ से चला आया!
दयानन्द- माना की वो बिल्कुल सही कह रहे थे पर बेटा इसमे हमारा क्या दोष है?
सत्यप्रकाश- क्योंकि जब उन्होंने अपने पुत्र का नाम बताया तो मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई!
क्योंकि उन्होंने अपने पुत्र का नाम दयानन्द बताया और वो दयानन्द जी कोई और नही आप ही हो!
मित्रों एक बात हमेशा याद रखना, हमेशा ऐसी आशाएं रखना जो तुम्हे लक्ष्य तक पहुँचा दे पर संसार से कभी मत रखना अपने आपसे, अपने सद्गुरु से और अपने ईष्ट से रखना क्योंकि जिसने भी संसार से आशाएं रखी अंततः वो निराश ही हुआ और जिसने नही रखी वो लक्ष्य तक पहुँचने मे सफल हुआ!मित्रों सफलता का एक सुत्र ये भी है की संसार से ज्यादा आशाएं कभी मत रखना क्योंकि ये संसार जब भगवान श्री राम और श्री कृष्ण की आशाओं पर खरा न उतरा तो भला हम और आप क्या है!