Huzur Aur Pathan

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यात्रा के दौरान पेशावर के निकट पठानो की एक छोटी बस्ती में हुजूर एक दिन रुके,
वहाँ सत्संग भी किया, पठान लोग एक सिक्ख वेष संत के मुँह से अरबी फारसी की आयतें
और मारफत की बातें सुनकर आश्चर्यचकित हुए, एक पढे लिखे पठान ने हुजूर से लम्बी चर्चा की, महाराज जी ने उसे अरब ईरान के संतो सूफियो की वाणी के उदाहरण देकर समझाया
अंत में वह पठान बोला “महाराज जी आपकी सब बातें दुरुस्त मालूम देती हैं, लेकिन खुदा के दीदार का जो रास्ता आप बताते है
वह सही है इसका क्या सुबूत हो सकता है ?
हुजूर ने मुस्कराते हुए उस पठान को सिमरन का तरीका बताया और कहा
कि आप चालीस दिन तक नियमित दो घंटे प्रतिदिन खुदा के किसी भी नाम का
सिमरन करें और मांस शराब से दूर रहिए

फिर भी यदि सुबूत न मिले तो ब्यास आकर मुझे पकडना, वह पठान धुन का पक्का था
अभी एक महिना तक ही अभ्यास किया, तो उसे अन्दर प्रकाश दिखने लगा

खुद हुजूर का दर्शन हुआ, वह तो दीवाना हो गया

भागा हुआ ब्यास पहुंचा, आँखों में प्रेम के आँसू लिए महाराज जी के हुजूर में पेश हुआ
और नाम दान के लिए अर्ज की, सतगुरु ने दया वश उसे नाम प्रदान किया

यह पठान सत्संगी सन् (१९४७) (1947) के बाद भी हुजूर की याद में तडपा करता था, विभाजन के अवसर पर उसने हिन्दू सिक्ख सत्संगियो की रक्षा में तन मन लगा दिया था

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