एक दिन नारद जी भगवान के लोक को जा रहे थे। रास्ते में उन्हें एक संतानहीन दुखी मनुष्य मिला। उसने कहा- नारद जी मुझे आशीर्वाद दे दो तो मेरे सन्तान हो जाऐ। नारद जी ने कहा- भगवान के पास जा रहा हूँ। उनकी जैसी इच्छा होगी लौटते हुए बताऊँगा।
नारद ने भगवान से उस संतानहीन व्यक्ति की बात पूछी तो उनने उत्तर दिया कि उसके पूर्व कर्म ऐसे हैं कि अभी सात जन्म उसके सन्तान और भी नहीं होगी। नारद जी चुप हो गये।
उधर कुछ दिन में एक दूसरे महात्मा संतानहीन व्यक्ति के उधर से निकले, उस व्यक्ति ने उनसे भी प्रार्थना की। उन्होंने आशीर्वाद दिया और दसवें महीने उसके पुत्र उत्पन्न हो गया
पाँच साल बाद जब नारद जी उधर से लौटे तो उन्होंने कहा – भगवान ने कहा है – तुम्हारे अभी सात जन्म संतान होने का योग नहीं है। इस पर वह व्यक्ति हँस पड़ा। उसने अपने पुत्र को बुलाकर नारद जी के चरणों में डाला और कहा- एक महात्मा के आशीर्वाद से यह पुत्र उत्पन्न हुआ है।
अब नारद को भगवान पर बड़ा क्रोध आया कि व्यर्थ ही वे झूठ बोले। मुझे आशीर्वाद देने की आज्ञा कर देते तो मेरी प्रशंसा हो जाती सो तो किया नहीं, उलटे मुझे झूठा और उस दूसरे महात्मा से भी तुच्छ सिद्ध कराया।
नारद कुपित होते हुए विष्णु लोक में पहुँचे और कटु शब्दों में भगवान की भर्त्सना की। भगवान ने नारद को सान्त्वना दी और इसका उत्तर कुछ दिन में देने का वायदा किया।
नारद वहीं ठहर गये।
एक दिन भगवान ने कहा- नारद लक्ष्मी बीमार हैं- उसकी दवा के लिए किसी भक्त का कलेजा चाहिए। तुम जाकर माँग लाओ।
नारद कटोरा लिये जगह- जगह घूमते फिरे पर किसी ने न दिया अन्त में उस महात्मा के पास पहुँचे जिसके आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न हुआ था।
उसने भगवान की आवश्यकता सुनते ही तुरन्त अपना कलेजा निकालकर दे किया।
नारद ने उसे ले जाकर भगवान के सामने रख दिया।
भगवान ने उत्तर दिया- नारद ! यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है, जो भक्त मेरे लिए कलेजा दे सकता है उसके लिए मैं भी अपना विधान बदल सकता हूँ।
तुम्हारी अपेक्षा उसे श्रेय देने का भी कारण है, जब कलेजे की जरूरत पड़ी तब तुमसे यह न बन पड़ा कि अपना ही कलेजा निकाल कर दे देते। तुम भी तो मेरे भक्त थे लेकिन तुम दूसरों से माँगते फिरे और उसने बिना आगा पीछे सोचे तुरन्त अपना कलेजा दे दिया।
त्याग और प्रेम के आधार पर ही मैं अपने भक्तों पर कृपा करता हूँ और उसी अनुपात से उन्हें श्रेय देता हूँ। नारद चुपचाप सुनते रहे। उनका क्रोध शान्त हो गया और लज्जा से सिर झुका लिया।
इसी तरह हमें भी बाबा जी के प्रति त्याग और प्रेम की भावना रखनी चाहिए, और जैसा की बाबा जी बहुत बार कहते हैं, तुम शुरुआत तो करो, वो तुम्हारा परमार्थ भी स्वांरेंगे और स्वार्थ भी
राधा स्वामी जी