एक बार एक गांव में एक संत पधारे, उन्होंने उस गांव में कुछ दिन रुक कर सत्संग करने का निर्णय लिया, सत्संग की सभी तैयारियां कर ली गई, गांव के लोग सत्संग सुनने आने लगे, धीरे धीरे दूसरे गांव के लोग भी आने लगे, उनमें एक युवक ऐसा था जो प्रतिदिन संत का प्रवचन सुनने आता था । जब प्रवचन समाप्त हुए, तो वह युवक संत के पास पहुंचा और कहा महाराज अगर आप बुरा न मानें तो एक शंका का निवारण चाहता हूँ, संत ने कहा कहो बेटा मैं तुम्हारी किस तरह मदद कर सकता हूँ, युवक बोला, महाराज मैं काफी दिनों से आपके प्रवचन सुन रहा हूँ किन्तु यहाँ से जाने के बाद मैं अपने गृहस्थ जीवन में वैसा सदाचरण नहीं कर पाता, जैसा यहां से सुनकर जाता हूं। इससे सत्संग के महत्व पर शंका भी होने लगती है। बताइए, मैं क्या करूं?’ संत ने युवक को बांस की एक टोकरी देते हुए कहा कि इसमें पानी भरकर लाओ । युवक टोकरी में जल भरने में असफल रहा। संत ने यह कार्य निरंतर जारी रखने के लिए कहा। युवक प्रतिदिन टोकरी में जल भरने का प्रयास करता, किंतु सफल नहीं हो पाता। कुछ दिनों बाद संत ने उससेे पूछा, ‘इतने दिनों से टोकरी में लगातार जल डालने से क्या टोकरी में कोई फर्क नजर आया?’ युवक बोला. ‘एक फर्क जरूर नजर आया है। पहले टोकरी के साथ मिट्टी जमा होती थी, परन्तु अब टोकरी साफ दिखाई देती है। कोई गंदगी नहीं दिखाई देती और इसके छेद पहले जितने बड़े नहीं रह गए, वे बहुत छोटे हो गए हैं।’ तब संत ने उसे समझाया, ‘यदि इसी तरह उसे पानी में निरंतर डालते रहोगे, तो कुछ ही दिनों में ये छेद फूलकर बंद हो जाएंगे और टोकरी में पानी भर पाओगे। इसी प्रकार जो निरंतर सत्संग करते हैं, उनका मन एक दिन अवश्य निर्मल हो जाता है, अवगुणों के छिद्र भरने लगते हैं और गुणों का जल भरने लगता है।’ युवक ने संत से अपनी समस्या का समाधान पा लिया। निरंतर सत्संग से दुर्जन भी सज्जन हो जाते हैं क्योंकि महापुरुषों की पवित्र वाणी उनके मानसिक विकारों को दूर कर उनमें सदविचारों का आलोक प्रसारित कर देती है।